नेताजी सुभाष का समाजवाद

नेताजी सुभाष का समाजवाद

Subhash Chandra Bose Essay for Students & Children | 500 Words Essay

          1938 में हरिपुरा में सम्पन्न कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर निर्विरोध चुन लया गया था। अपने अध्यक्षीय भाषण में सुभाष ने भारत की आजादी के लिए साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत से संघर्ष और आजादी के बाद देश के नवनिर्माण की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की थी। उनका दृढ़ विश्वास था कि आजाद भारत में गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, शोषण, स्वास्थ्यहीनता और भुखमरी का निदान समाजवादी समाजरचना से ही संभव है। ऐसा समाज बनाने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय योजना समिति की स्थापना कर दी थी। उन्होंने राजनीतिक कार्यकर्ताओं में समाजवादी दृष्टि विकसित कर उनमें विभिन्न विषयों की गहरी समझ बनाने की आवश्यकता को रेखांकित किया था। दुर्योग से आजाद भारत को उनका नेतृत्व नहीं मिला तथा उनके विचारों को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। संविधान के 42वें संशोधन में 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में “समाजवाद’ को शामिल कर दिया था किन्तु समाजवाद को संविधान में परिभाषित नहीं किया गया। फलस्वरूप समाजवाद की अलग-अलग प्रकार से व्याख्या की जा रही है और इसके कारण नागरिकों में तरह-तरह की भ्रांतियां व्याप्त हैं।

01. कम्युनिस्टों का समाजवाद :- उत्पादन और वितरण के समस्त साधनों का सरकारी करण, सर्वहारा के अधिनायकवाद के नाम पर जनवाद की जगह पोलिटब्यूरो का वर्चस्व । इस नीति के परिणामस्वप सोवियत संघ समेत प्रायः समस्त विश्व में कम्युनिस्ट पार्टी का लेनिनवादी मॉडल एक साथ ध्वस्त हो गया। देशप्रेम के अभाव और विज्ञान के प्रति उपेक्षा ने उनके आर्थिक और सामाजिक ताना-बाना को बिखरा दिया।

02. जवाहरलाल नेहरू का समाजवाद :- प्रोफेसर लास्की के फेबियन वाद से प्रेरित नेहरू के समाजवाद में सार्वजनिक उद्योग के नाम पर निजी उद्योग के आधारभूत संरचना प्रदान किया। विदेष से उधार तकनीक और जनता की भागीदारी की जगह नौकरशाही पर निर्भरता ने नेहरू के समाजवादी मॉडल को विफल कर दिया।

03. अच्युत पटर्वधन और सम्पूर्णानन्द का समाजवाद :- वैदिक मान्यताओं पर आधारित था जो भविष्य के पथ-प्रदर्षक बनने की बजाय अतीतजीवी था। वह वर्तमान परिस्थितियों में पूर्णतः अप्रासंगिक था।

04. अशोक मेहता का समाजवाद :- पूंजवादी जनवाद (डेमोक्रेटिक सोशलिज्म) पर आधारत था।

05. आचार्य नरेन्द्र देव का समाजवाद :- प्रवचन में मार्क्सवादी और व्यवहार में गांधीवाद पर आधारित था।

06. डॉ. राममनोहर लोहिया का समाजवाद :- अपनी नौजवानी में जर्मनी के प्रो. सोम्वाट और
हिटलर से प्रभावित थे। उनके समाजवाद का समापन गांधीवाद में हुआ। उनके दल का राजनीतिक ढांचा मध्यवर्गीय जातियों के संश्रय पर आधारित है जो प्रगति की जगह रूढ़िवाद में तब्दील हो गया और असफल साबित हो रहा है।

07. जय प्रकाश नारायण के समाजवाद पर प्रो. हर्बर्ट मिलर का प्रभाव था। वे अपने को मार्क्सवादी कहा करते थे पर अंत में एम.एन. राय और महात्मा गांधी के प्रभाव में घोर मार्क्सवादी हो गए और विकेन्द्रीयकरण की वकालत करने लगे। वे न तो इसका मॉडल दे पाए और न ही इसे सुस्पष्ट ढंग से परिभाषित कर पाए।

08. गांधी के विचार मध्ययुगीन एवं पराक्य (प्री केपिटलिस्ट) पूंजीवादी हैं, वर्तमान दौर में यह अव्यवहारिक हो गया है। गांधीजी के विचार सामंती युग के अनुरूप थे जो अब अव्यवहारिक हो चुके हैं।

09. सुभाषचन्द्र बोस का समाजवाद उपरोक्त सभी समाजवादी धाराओं से भिन्न है। उसमें सर्वहारा के अधिनायकवाद की जगह जनता का जनवाद है। राष्ट्रीयकरण की जगह समाजीकरण है। पोलिटब्यूरो और केन्द्रीय समिति की जगह समाज का वर्चस्व है। सुभाष चन्द्र बोस विश्व दृष्टि से लैस थे और अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं पर उनकी पैनी नजर गड़ी रहती थी किन्तु देशप्रेम कभी ओझल नहीं होता था। जनसंस्कृति के प्रकारात्म्क तत्वों की निरंतरता थी एवं रूढ़िवाद के विरोध में परिवर्तन की वैचारिकी थी। वे नेहरू की तरह परआश्रित तकनीक की जगह स्वावलंबन की नीति के पैरोकार थे। वे राजनीति में धर्म के प्रयोग के खिलाफ थे। वे धर्म को व्यक्तिगत मानते थे। आधुनिक भारत का निर्माण विज्ञान और योजना पर आधारित करना चाहते थे। वे जाति या क्षेत्र की राजनीति को कुत्सित समझते थे। त्याग और सेवा उनके कार्यक्रम के प्रमुख बिन्दु रहा करते थे। वे स्वयं भी बलिदानी थे और दूसरों से भी त्याग और बलिदान की अपेक्षा रखते थें आज भारत में जाति और धर्म की राजनीति का बोलबाला है। ऐसी परिस्थिति के मकड़जाल से सुभाष का समाजवाद ही निकालकर सही रास्ता दिखा सकता है।

सुभाष चन्द्र बोस को समकालीन इतिहास ने अपनी जरूरत के लिए पैदा किया था वे तत्कालीन इतिहास की सृष्टि थे और उनके विचार वर्तमान दौर की राजनीति के उचित सृष्टा भी हैं। इस प्रकार भारत के संविधान में उल्लिखित संप्रुभता, धर्मनिरपेक्षता, अखण्डता और समाजवाद को व्यवहार में चरितार्थ करने के लिए सुभाषवादी व्याख्या ही सबसे उपयुक्त है।

जयन्त वर्मा
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